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इतिहास

भारतीय मीडिया का इतिहास 18 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से शुरू हुआ, वर्तमान मे 21 वीं सदी के सबसे बड़े कामकाजी लोकतंत्र के अस्तित्व का एक महत्वपूर्ण केंदबिन्दु बन गया है।  

यह वह दौर था जब देश के भीतर अंग्रेजों का घेरा बहुत मजबूत था और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन अभी भी अपनी नवजात अवस्था में था। 18 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध मे भारतीय समाचार पत्रों ने न केवल शासकों के लिए  बल्कि भारत के बाहर बैठे ब्रिटिश पाठकों के के लिए भी समाचार मुहैया करवाया। इस दौर मे अखबारों का प्रकाशन बहुत बड़े पैमाने पर नहीं होता था, यह छोटे निजी वाणिज्यिक उद्यमों के रूप में था, जो कि गत वर्षों में भी बहुत अधिक नहीं बदला है।  

भारतीय अखबार की गाथा एक आयरिशमैन  जेम्स ऑगस्टस - हिक्की के साथ शुरू हुई। हिक्की ने 1780 में अंग्रेजी में भारत का पहला समाचार पत्र "बंगाल गजट" लॉन्च किया था। इससे पहले, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के नियमों ने भारत में समाचार पत्रों की स्थापना को प्रोत्साहित नहीं किया था। हिक्की ने अपने अखबार को स्वतंत्र और निष्पक्ष बताने के लिए यह पंक्ति जरूर जोड़ी कि यह साप्ताहिक “राजनीतिक और वाणिज्यिक पत्र सभी पार्टियों के लिए खुला, मगर किसी भी विचार और व्यक्ति से प्रभावित नहीं" है। यह अखबार व्यंग्यात्मक था। उस समय के अन्य ब्रिटिश पत्रों में स्पष्ट रूप से "गंभीर समाचार" के स्वर का अभाव था। शुरुआत मे अखबार अपने विरोधियों पर आक्रमण उनका मज़ाक बनाता रहा। अखबार ब्रिटिश अखबार शैली की नकल कर शुरुआत में केवल ब्रिटिश निवासियों को पाठकों के रूप में लक्षित किया था।

अखबारों के सेंसरशिप के कथानक को भारत के पहले गवर्नर जनरल के खिलाफ एक अभियान के परिणाम स्वरूप देखा जा सकता है, जब "बंगाल गजट" के वितरण को आधिकारिक चैनलों के माध्यम से प्रतिबंधित कर दिया गया था। यह वह घटना थी जिसने कथित तौर पर हिक्की की अवधारणा को मजबूत किया कि प्रेस को अपने उद्देश्य की पूर्ति करने में सक्षम होने के लिए स्वतंत्र होना चाहिए। उन्होंने अखबार मे काफी जगह सामाजिक मुद्दों और युद्ध विरोधी सामग्री को समर्पित किया। उन्होने अखबारों की पहुँच आसान बनाने का प्रयास अनवरत जारी रखा हालांकि उनकी गिरफ्तारी के बाद भारत का पहला अखबार अंततः 1782 में पहले गवर्नर जनरल और सुप्रीम कोर्ट द्वारा दुर्घटनाग्रस्त हो गया था।

यद्यपि अखबारों के सीमित पहुंच और सीमित अस्तित्व के बावजूद यह कहने मे कोई हर्ज नहीं कि इस परिघटना ने अन्य व्यक्तियों को भी समाचारपत्र लॉन्च करने के लिए प्रेरित किया है। बंगाल गजट के साथ अन्य अखबार जैसे ‘बॉम्बे हेराल्ड, ‘बॉम्बे कूरियर’ क्रमशः 1789 और 1790 में, और 1791 में ‘बॉम्बे गजट’ ने बाजार में प्रवेश किया। जबकि सरकार प्रेस की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगा रही थी तो दूसरी ओर व्यापक आलोचनाओं से सरकार की बौखलाहट भी साफ झलक रही थी। उसके बाद लगातार दो दशकों से भी अधिक समय तक प्रेस की स्वतंत्रता पर लगाम लगाने का प्रयास जारी रहा क्योंकि भारत में गवर्नर जनरलों ने प्रेस को स्वतंत्रता देने से इनकार कर दिया था।  

मीडिया द्वारा आज़ादी की भावनाओं को प्रोत्साहन 

1822 के दौर मे समाज सुधारक राजा राम मोहन राय ने अपने प्रकाशनों के माध्यम से भारतीय जनता को स्वतंत्रता के लिए जागरूक करना शुरू किया। रॉय ने सबसे पहले क्षेत्रीय भाषा मे समाचार पत्र का संपादन किया। इन्हे बंगाली और परसियन भाषा मे क्रमश: संबाद कौमिदी मिरात-उल-अखबर के नाम से जाना जाता है। एक सुधारक के रूप में उन्होंने "सती" (एक बर्बर प्रथा जहां एक मृत व्यक्ति की पत्नी अपने पति की चिता पर स्वयं को विसर्जित करती है) जैसी सामाजिक बुराइयों के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए अपने प्रकाशनों का उपयोग किया। उस समय अपेक्षाकृत उदार गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बेंटिक ने भी भारतीय समाजसुधारकों के प्रयासों का समर्थन किया, जिसके परिणामस्वरूप वर्ष 1830 तक भारत में 33 अंग्रेजी भाषा और 16 भारतीय भाषा मे प्रकाशन हुए।

पहला हिंदी भाषा का समाचार पत्र "उदंत मार्तंड" (उगता सूरज) साप्ताहिक था, जो पहली बार 1826 में पंडित जुगल किशोर शुक्ला (पेशे से एक वकील थे) के नेत्रत्व में प्रकाशित हुआ था। जैसा कि साफ है, गैर अंग्रेज़ी भाषा प्रेस की आवाज ब्रिटिश सरकार के खिलाफ बेहद मजबूत थी, इसलिए इस पर नियंत्रण के लिए 1878 में वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट नामक कानून लाया गया था। तत्कालीन वायसराय, लॉर्ड लिटन द्वारा जारी किया गया अधिनियम, सरकार की नीतियों की आलोचना करने और मौखिक रूप प्रेस की आजादी को रोकने का इरादा रखता था। चूंकि प्रेस की पहुंच लगातार बढ़ रही थी, इसलिए इस अधिनियम का उद्देश्य ब्रिटिश शासन के खिलाफ अशांति फैलाने से रोकना भी था। यह बाद में 1881 में लॉर्ड रिपन द्वारा निरस्त कर दिया गया था। अखबारों ने भारत की स्वतंत्रता की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जैसे कि भारतीय स्वामित्व वाले प्लेटफार्म  "ट्रिब्यून" के साथ हुआ, 1919 में "अमृतसर नरसंहार" को कवर करने के बाद  इस अखबार को  बंद कर दिया गया था और इसके संपादक, काली नाथ रे को जेल भेज दिया गया था। 

रेडियो की विशाल पहुंच

भारत में रेडियो के उद्गम का एक रोचक इतिहास है। 1923 और 1924 में बॉम्बे, कलकत्ता और मद्रास (आज चेन्नई) में 3 रेडियो क्लबों ने अपनी सेवाओं की शुरुआत की, यह अधिकतर संगीत और दिन में एक-दो घंटे बातचीत पर आधारित थे।  वित्तीय मुद्दों के कारण उन्हें 1927 में यह बंद करने पड़े। भारत सरकार और एक निजी कंपनी के बीच एक समझौते के तहत, भारतीय प्रसारण कंपनी लिमिटेड (आईबीसी)  के नाम से संचालित होंने वाली एक प्रसारण सेवा उसी वर्ष भारत के बॉम्बे में स्थापित की गई थी। कलकत्ता के बाद आईबीसी और सरकार ने अपनी संपत्ति को बंद कर दिया। इसके पश्चात, श्रम और उद्योग विभाग, भारतीय राज्य प्रसारण निगम नामक नए नाम के तहत परीक्षण के आधार पर संचालन शुरू किया। तभी से भारत में रेडियो प्रसारण सरकारी नियंत्रण में है। 1936 में, कंपनी का नाम बदलकर नया नाम ऑल इंडिया रेडियो एआएआर राज्य-संचालित रेडियो सेवा अस्तित्व मे आया। 1956 में, राज्य प्रसारक, ऑल इंडिया रेडियो को फिर से "आकाशवाणी" का नाम दिया गया। एक साल बाद, आकाशवाणी ने विविध भारती का शुभारंभ किया इस कार्यक्रम का आधार फिल्म और संगीत था। आजकल एआईआर और निजी वाणिज्यिक रेडियो स्टेशन एफएम और सामुदायिक रेडियो स्टेशन भारत मे एक विविध और विस्तृत रेडियो परिदृश्य बनाते हैं। यद्यपि एफएम-स्टेशनों को अखिल भारतीय रेडियो द्वारा उत्पादित ‘अन-अनलॉक्ड’ समाचारों को प्रसारित करने की अनुमति है, लेकिन वे स्वयं समाचार प्रसारण कानून द्वारा प्रतिबंधित हैं। भारत में डिजिटल रेडियो प्रसारण से संबंधित मुद्दों पर ट्राई परामर्श पत्र के अनुसार, एआएआर 420 रेडियो स्टेशन देश के लगभग 92% क्षेत्र और संपूर्ण जनसंख्या का 99.20% कवर करता है। समाचार उत्पादन और जनता की राय पर नियंत्रण बनाए रखने के लिए, सरकार के लिए रेडियो एक विशेष रूप से मजबूत उपक्रम बनाता है, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में कम साक्षरता दर के कारण जहां जनता का एक बड़ा हिस्सा एक टीवी नहीं खरीद सकता है और समाचार पत्र पढ़ने में सक्षम नहीं है। रेडियो प्रसारण मीडिया में मौजूद भारी विनियमन को भी समझा सकता है यह देश की सुरक्षा, राष्ट्रीय सुरक्षा और सार्वजनिक व्यवस्था मे महत्वपूर्ण स्थान रखता है।     

टेलेविज़न - विविध मनोरजन का जरिया

भारत में टेलीविज़न की शुरुआत बहुत सामान्य सी है। 15 सितंबर 1959 से शुरू हुए एक परीक्षण प्रसारण से, जैसे-जैसे साल आगे बढ़ा, टेलीविजन ने अपना विस्तार बढ़ाया। 1975 तक, केवल सात भारतीय शहरों में सरकार द्वारा संचालित राष्ट्रीय टेलीविजन सेवा दूरदर्शन की पहुंच थी। 1982 में, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार के दौरान, भारत में रंगीन टेलीविजन का आगमन हुआ। 1991 तक भारतीय टेलीविजन दर्शक के लिए चीजें नाटकीय रूप से बदली, जब 1991 के खाड़ी युद्ध को सीएनएन के माध्यम से भारतीय घरों तक पहुँच मिली। भारतीयों के लिए अंतरराष्ट्रीय टेलीविजन का स्वाद एक निजी अनुभव था संयोगवश, यह वही वर्ष था जब भारत सरकार ने अर्थव्यवस्था के द्वारा खोले थे और निजी उपग्रह टेलीविजन चैनलों को भारत में फलने फूलने की अनुमति दी। पहली बार, भारतीय दर्शकों को दूरदर्शन के अतिरिक्त अन्य शो देखने का अवसर मिला।  पहली बार सन नेटवर्क, ज़ी नेटवर्क और स्टार नेटवर्क सहित कई टेलीविजन नेटवर्क घरेलू नाम बन गए, कुछ प्रसिद्ध अंग्रेजी धारावाहिकों के विदेशों मे प्रसारण के कारण भारत भी वैश्विक मनोरंजन जगत तक पहुँच बना सका है। कुल मिलाकर वर्तमान मीडिया परिदृश्य पर नज़र डालें तो भारत में इस क्षेत्र में हुए विस्फोट की भयावहता का एहसास होगा। आज 1,18,239 मीडिया प्रकाशन, 38,933 साप्ताहिक समाचार पत्र और पत्रिकाएं, 17,160 दैनिक समाचार पत्र, 880 उपग्रह टेलीविजन चैनल, 380 से अधिक समाचार टेलीविजन चैनल और 550+ गैर-समाचार मनोरंजन रेडियो स्टेशन हैं। सांख्यिकी पोर्टल स्टेटिस्टा के अनुसार, वर्ष 2018 में केबल और सैटेलाइट द्वारा भारत में टीवी की पहुंच 82% थी और वर्ष 2023 तक बढ़कर 84% होने की संभावना है। भारतीय मीडिया को इतिहास के विभिन्न बिंदुओं पर कुछ उथल-पुथल से गुजरना पड़ा है। 1975 में, देश की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को भ्रष्टाचार के कई आरोपों का सामना करना पड़ा और देश में आंतरिक आपातकाल घोषित कर दिया गया था साथ ही मौलिक अधिकारों को निलंबित कर प्रेस स्वतंत्रता पर अंकुश लगा दिया गया था। बहुत समय बाद, जब श्रीमती गांधी के पुत्र, राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे तब उन्होंने सरकार की आलोचना पर रोक लगाने वाले कानून की मांग की थी और "आपराधिक अभियोग" और "अपमानजनक लेखन" के खिलाफ एक विरोधी मानहानि कानून लाने की कोशिश की थी, हालांकि बाद मे  गांधी ने बिल वापस ले लिया था क्योंकि उन्हे देश भर से असाधारण विरोध का सामना करना पड़ा। नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली वर्तमान सरकार में भी यह आम भावना है कि प्रेस को अपना काम करने की स्वतंत्रता नहीं है

चुनौतियों के बावजूद, भारतीय मीडिया लोकतंत्र के सबसे स्थायी स्तंभों में से एक है। यद्यपि मीडिया को बार-बार चुनौतियों का सामना करना पड़ता है लेकिन मीडिया ने एक प्रहरी की भूमिका निभाने की कोशिश की है। भारतीय लोकतंत्र के चौथे स्तंभ होने के शीर्षक को उचित ठहराया है।

स्रोत

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